आचार्य श्रीराम शर्मा >> अन्त्याक्षरी पद्य-संग्रह अन्त्याक्षरी पद्य-संग्रहश्रीराम शर्मा आचार्य
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जीवन मूल्यों को स्थापित करने के लिए अन्त्याक्षरी पद्य-संग्रह
(ब)
बचाने स्वतंत्रता बलिदान का, फिर वक्त आया है।
शहीदों की जवानी ने, जवानो फिर बुलाया है।।
बड़ माया को दोष यह, जो कबहूँ घटि जाय।
तो रहीम मरिबो भलो, दुख सहि जियै बलाय॥
बड़े गये बड़ापने, रोम-रोम हंकार।
सतगुरु के परिचय बिना, चारों बरन चमार।।
बड़े दीन को दुःख सुने, लेत दया उर आनि।
हरि हाथी सों कब हुती, कहु रहीम पहिचानि॥
बड़े न हूजै गुनन बिन, बिरद बड़ाई पाय।
कहत धतूरे सौ कनक, गहनो गढ़ो न जाय॥
बड़े बड़ाई ना करै, बड़े न बोले बोल।
रहिमन हीरा कब कहै, लाख टका मम मोल॥
बड़े भाग्य से मानव तन मिल पाता है।
ओ! नादान इसे क्यों व्यर्थ गवाता है।।
बड़ो बाँधिनो सर्प का, भवसागर के माँहि।
जो छोड़े तो बूड़े, गहै तो डॅसे बाँहि॥
बढ़त-बढ़त संपति सलिल, मन सरोज बढ़ि जाय।
घटत-घटत पुनि ना घटे, वरु समूल कुंभिलाय॥
बदला जाये दृष्टिकोण यदि, तो इन्सान बदल सकता है।
दृष्टिकोण के परिवर्तन से, अरे जहान बदल सकता है।।
बदलो अपनी चाल नया युग आने वाला है।
हुई दिशाएँ लाल, अँधेरा जाने वाला है॥
बन जाये बिमल संसार, ऐसी रचना करें।
सतयुग हो पुनः साकार, सुख के मोती झरें॥
बनाने संतति को सिर मौर। हमें उठना है ऊपर और॥
बने रहे उपयोगी इसमें, भला हमारा है।
व्यक्ति नहीं वह उपयोगों से होता प्यारा है॥
बनो एक सब मिल विषमता मिटाओ।
जगो तुम स्वयं राष्ट्र को भी जगाओ॥
बन्दे तू औरों के काम नहीं आया।
माटी के मोल गई कंचन-सी काया।।
बरु रहीम कानन भलो, वास करिय फल भोग।
बंधु मध्य धनहीन है, बसिबो उचित न योग।।
बलिहारी तेहि पुरुष की, जो परचित परखत हार।
साईं दीन्हों खाँड़ को, खाखी बूझे गँवार॥
बलिहारी वह दूध की, जामें निकरे घीव।
आधी साखी कबीर की, चार वेद का जीव॥
वसन्त अपनी विभूतियों को, बिखेरने तड़फड़ा रहा है।
विभूतियाँ बन वसन्त का रस, सभी दिशाओं में छा रहा है।।
बसन्ती बहारें मचलने लगी हैं।
धरा को गगन को बदलने लगी हैं।।
बसायें एक नया संसार।
कि जिसमें छलक रहा हो प्यार।।
बसै बुराई जासु तन, ताही को सनमान।
भलौ-भलौ कहि छोड़िये, खोटे ग्रह जप-दान।।
बहकि बड़ाई आपनी, कत राचति मतिभूल।
बिन मधु मधुकर हिये, गडै न गुड़हल फूल॥
बहनों दीपयज्ञ है आज, परम सौभाग्य हमारा है।
परम सौभाग्य हमारा है, बड़ा सौभाग्य हमारा है।।
बहुत दिवस ते हीड़िया, शून्य समाधि लगाय।
खरहा पड़ा गाड़ में, दूरि परा पछिताय॥
बहत सो चुकी अब तो जागो, ओ नारी कल्याणी।
परिवर्तन के स्वर में भर दो निज गौरव की वाणी॥
बहुत हो चुकी बाढ़ गरल की, अब अमृत बरसाओ।
मानव हो तो मानवता का, मूल्य चुकाकर जाओ॥
बहे हम न तेज धारों में, माँ आज वही शक्ति दो हमें।
रहें हम निडर प्रहारों में, माँ आज वही शक्ति दो हमें॥
बाँह मरोरे जात हो, मोहि सोवत लिये जगाय।
कहहिं कबीर पुकारि के, ई पिण्डे होहु कि जाय॥
बाजीगर का बाँदरा, ऐसा जीव मन के साथ।
नाना नाच नचाय के , ले राखे अपने हाथ॥
बिगड़ी मेरी बना दो, हरिद्वार वाले बाबा।
दिल की शमा जला दो, हरिद्वार वाले बाबा॥
बिगरी बात बन नहीं, लाख करौ किन कोय।
रहिमन फाटे दूध को, मथै न माखन होय॥
बिगुल बज गया महाक्रान्ति का, वीरो शौर्य दिखाना है।
असमंजस में समय गंवाकर, कायर नहीं कहाना है॥
बिछुड़े हुए मिलायें, सबको गले लगायें।
युग का नया तराना, हम एक साथ गायें॥
बिन देखे वह देश की, बात कहै सो कूर।
आपुहि खारी बात है, बेचत फिरै कपूर॥
बिना ज्ञान गुन के लखै, भानु गकरि मनुमारि।
ठगत फिरत सब जगत को, भेष भक्त को धारि॥
बिना तेज के पुरुष की, अवसि अवज्ञा होय।
आगि बुझे ज्यों राखिको, आनि छुयै सब कोय॥
बिना प्रयत्न न होत है, कारज सिद्ध निदान।
चढ़ौ धनुष हू ना चलै, बिना चलाये बान॥
बिन सत्संग न हरि कथा, तेहि बिन मोह न भाग।
मोह गये बिनु रामपद, होइ न दृढ़ अनुराग॥
बिन्द्र में सिन्धु समान को, अचरज कासों कहैं।
हेरनहार हिरान , रहिमन आपुनि आप में॥
बिरह की ओढ़ी लाकड़ी, सपचै औ धुंधुवाय।
दुख ते तबहीं बाँचिहौं, जब सकलो जरि जायॉ॥
बीत चली रात जागो, आयेगा प्रभात साधक।
युग ऋषि की बात इतनी मान लो॥
बुढ़ापा आ गया कैसे, जवानी क्यों नहीं आई।
अरे! गतिरोध क्यों आया, रवानी क्यों नहीं आई।।
बुन्द जो परा समुद्र में, सो जानत सब कोय।
समुद्र समाना बुन्द में, सो जानै बिरला कोय॥
बुरे लगत सिख के वचन, हिये विचारै आप।
कड़ई भेषज बिन पिये, मिटे न तन की ताप॥
बरो बराई जो तजे, तो चित खरो सकात।
ज्यों निकलंक मयंक लखि, गनै लोग उतपात॥
ब्रह्मबीज से ब्रह्मयज्ञ से, ब्राह्मण वर्ग बनायेंगे।
देवों के इस धरा धाम को, सतयुग तुल्य सजायेंगे।।
बैठति इक पग ध्यान धरि, मीनन को दुख देत।
वक सुख कारे हो गये, रसनिध याही हेत॥
बैठा रहे सो बानिया, ठाड़ रहे सो ग्वाल।
जागत रहे सो पहरुआ, तेहि धरि खायो काल॥
बैर सनेह सयानपति, तुलसी जे नहिं जान।
ते कि प्रेम-मग धरत पसु, बिनुही पूँछ-विषान॥
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